आज से करीब 5०-6० वर्ष पहले तक कोल्हू का प्रचलन खूब था| कई पुरानी चलचित्रों मे कोल्हू को दिखाया गया है | अब नयी पीढी जो चेहरा किताब व अन्य मनोरंजन के माध्यमों से जुड़ी हुई है, उसके लिये कोल्हू तो किसी परग्रही वस्तु से कम नही है। तो पहले मै कोल्हू होता क्या है इसकी जानकारी प्रेसित करता हूँ - कोल्हू मुख्यत: पत्थर या लकड़ी के बनाये जाते थे, जिन्हे सरसो का तेल निकालने हेतु प्रयोग मे लाया जाता था तथा इन्हे बैलों के द्वारा चलाया जाता था (कोल्हू का बैल शब्द यहीं से आया है) | अब जब लेखक जौनपुर के परिपेक्ष्य मे बात कर रहा है तो यह जानना महत्वपूर्ण है कि वह अपने भ्रमण के दौरान करीब 25-26 प्रकार के विभिन्न तरीके के कोल्हूओं को देखा तथा उनको डाक्यूमेंट किया। विभिन्न कोल्हू में मुख्य बदलाव कोल्हू के उपर बनाया गया चित्र तथा साज सज्जा हैं (उकेर के बनाया गया)। अब प्रश्न यह है की कोल्हू करीब 200 कुन्तल के करीब होते हैं कुछ छोटे भी होते हैं परन्तु वो भी 100 कुन्तल से कम तो नही होते लाये कहाँ से व कैसे जाते थे ? यह जानने के लिये लेखक ऐसे गाँवों का सफर किया जहाँ पर कोल्हू उपलब्ध थे या जो प्राचीन काल में कोल्हू के ले जाने वाले राह मे पड़ते थे। वहाँ से बुजुर्गों आदि से बात कर यह नतीजा निकला की इसके पीछे प्रतिष्ठा का सवाल है- कहा जाता है की जौनपुर मे 100% कोल्हू विन्ध्याँचल व चुनार से लाया जाता था। यह गौर करने वाली बात है की उनका निर्माण वहीं मिर्जापुर में ही हो जाता था, बनने के बाद ये बेलनकार हो जाते थे अब इन्हे गड़ारी की तरह चलाया जा सकता था। जो कोल्हू लेने जाते थे उनका पूरा झुंड रहता था तथा वो बस कोल्हू को एक गाँव के सरहद पर पहुँचा देते थे तथा जब किसी गाँव मे कोल्हू पहुँच जाता था तो उस गाँव वाले मिल के कोल्हू को अपने गाँव के बाहर पहुँचा आते थे तथा उसके एवज मे उन्हे गुड़ चना आदि खरमेटाव (खाने हेतु) मे मिलता था। इसी प्रक्रिया से कोल्हू अपने गंतव्य पर पहुचते थे |
कोल्हुओं पर मुख्यतः किसी ना किसी पुजा पाठ का अंकन होता है जो की पुरापाषाण कालीन भित्ति चित्र की तरह दिखाई देते हैं (इस विषय पर कभी संपूर्ण लेख) जो कि इस बात का घोतक है की पाषाण कालीन जीवन यापन की छाप लंबे समय तक रहा है, गावों मे इन कोल्हुओं की पूजा बहोत श्रद्धा व भक्ती के साथ किया जाता है, वर्तमान मे मशीनीकरण होने के वजह से ये सारी प्राचीन विधियाँ समाप्त होने लगी हैं